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  • Writer's pictureSukrit Gupta

The Ghost Of Parang La Pass Trek (पारंगला पास का प्रेत)

पारंगला पास का प्रेत (The Ghost Of Parang La Pass Trek)

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मेरा नाम मोहित है। मेरा लिखने का उद्देश्य यह है की अगर वो मुझे ले भी जाए तो भी सबको पारंगला पास ट्रेक का सच पता चल जाये।

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मैं पेशे से एक एडवेंचर फिल्मकार हु । और काम के कारण साल भर हिमालयन ट्रेक्स करता हु । पहाड़ी जीवन शैली की सिम्पलिसिटी और सुंदरता की वजह से ही मैंने इस करियर को चुना था । पहाड़ो को अपने कैमरा के नज़रिये से सुन्दर दर्शाना मुझे कभी कठिन नहीं लगा, क्योंकि नेचर है ही इतनी ख़ूबसूरत की जिधर बटन दबाओ, अच्छा पीस ही कैप्चर होता है। 



लेकिन, मेरा आखिरी असाइनमेंट बाकियों से काफी अलग था । यूँ तोह मैं अथीस्ट हूँ । मैंने कभी भगवान या दैवी ताकतों में आस्था नहीं रखी। तो ज़ाहिर है की भूत, प्रेत और आत्माओं में भी विश्वास नहीं था । नहीं था ! 



अमूमन यह डरपोक लोगों के मनघडन किस्से या वीकेंड नाइट आउट्स को चटपटा बनाने का जरिया ही होते हैं ।



लेकिन पारंगला पास ट्रेक ने शायद मेरा ये भ्रम पूरी तरह तोड़ दिया है । यह ट्रेक, हिमाचल प्रदेश में स्पीति वैली से शुरू होती है और 5600 मीटर के पारंगला दर्रे को पार करके त्सो मोरिरि लेक, लद्दाख में खुलती है। 90  किलोमीटर की ये पद यात्रा को पूरा करने में लगभग 1 हफ्ते का समय लगता है। चढाई कठिन होती है और वातावरण दुर्लभ। इसलिए ट्रेकर्स हर दिन कैम्प टू कैम्प छोटी दूरी तय करके ये सफर पूरा करते हैँ।



मेरे ग्रुप ने यह ट्रेक पिछले महीने शुरू की। हम सब लोग किब्बर गांव में मिले। कुल 12 लोगों के ग्रुप के साथ 3 गाइड्स, 1  कुक, 4 खच्चर वाले, और एक फिल्मकार, यानि मैं था। हमारे पहले दो दिन बाकि ट्रेक्स की तरह ही थे। जब सबकी एनर्जी और एक्साइटमेंट हाई रहता है। ग्रुप में अमूमन इसी वक़्त बातें और बॉन्डिंग भी होती है, जो आगे के कठिन सफर को सक्सेसफुल बनाने में काफी हेल्प करती है। हमने किब्बर के बुग्यालों और धुमले गाओं में कैंप किया। वहां हमने स्पीति के फेमस चुमुर घोड़े भी देखे। आगे के दिनों में स्नो लेपर्ड, जो की हिमालय की सुदूर चोटियों में रहने वाली बाघ की एक दुर्लभ प्रजाति है, कि मिलने की संभावना भी थी! जिसकी वजह से मैं काफी एक्साइटेड था। यही कारण था की मैं देर रात को सबके सोने के बाद कैमरा ट्रायपॉड पर लगाकर घंटे-दो घंटे ऑन छोड़ देता था। रात के अँधेरे मैं कैम्पसाइट के आस पास खाने कि तलाश में स्नो लेपर्ड के भटक आने की संभावना काफी थी। [/vc_column_text][vc_single_image image=”6018″ img_size=”full” add_caption=”yes” alignment=”center”][vc_column_text]

तीसरे दिन हमने कैंप ठीक पारंगला पास के बेस में लगाया। वहां की ऊंचाई समुद्र तल से कुछ 4800  मीटर थी। ऑक्सीजन कि कमी से सब काफी जल्दी थक गए। कैंप में कोई चहल-पहल, न ही कोई शोर था। ज्यों ही डिनर समाप्त हुआ की कैंप में गहरा सन्नाटा छा गया। कुछ लोग तो बिना डिनर किये ही, गर्म स्लीपिंग बैग्स में गहरी नींद में लिपटे थे। दिन भर इतनी मेहनत करलेने के बाद, टेंट की तंग दीवारों के बीच, लापता करवटो वाली वो नींद भी काफी बहुमूल्य लगती है। 



मुझे हाई अल्टीट्यूड में काम करने का गहरा अनुभव होने के कारण, ज़्यादा थकान महसूस नहीं हो रही थी। साथ ही हिमालय के इस ठन्डे सुनसान में स्नो लेपर्ड डॉक्यूमेंट कर पाने की संभावना भी काफी थी। तो सबके सोते ही, मैं काम पर लग गया। मैंने कैंप से कुछ दूर कैमरा सेट किया। ऐसे की मिल्की वे के तारों से उजली घाटी का एक मेजर एरिया मेरे लेंस में कैद हो जाए। फ्रेम में कुछ टेंट्स भी थे। जिसमे मेरा भी था। कैमरा सेट करने के बाद मैं कुछ देर टेंट में सुस्ताने चला गया। लेकिन स्लीपिंग बैग का ज़िप बंद करते ही आँख लग गयी। क्यूंकि, पुरे दिन स्नो लेपर्ड का सोच रहा था, तो सपनों में भी वही आया। parangla पास के टॉप पर मुझे स्नो लेपर्ड दिखा। मैं दबे पाओं उसके पीछे कैमरा पॉइंट करके बड़ा। वो भी आगे चलने लगा। चलते चलते वो एक लाल टेंट में घुस गया। मेरा दम घुटने लगा। ऐसा लगा लेपर्ड मेरे चेस्ट पर चढ़ा है और अपने पंजो से मेरी गर्दन नोच रहा है। में सक्पका सा टेंट में उठ खड़ा हुआ। सांसें दौड़ रहीं थी, मैं हांफ रहा था। इतनी ठण्ड में भी पसीने का एहसास हुआ। मैं हवा खाने के लिए टेंट से बहार आया। सब नार्मल था। शांत था। जैसा छोड़ा था, सब वैसा ही था। घड़ी देखी तो कुछ डेड घंटा हो चूका था। 



मैंने कैमरा पैक करने कि सोची। रिकॉर्डिंग स्टॉप की और ट्रायपॉड फोल्ड किया। रात काफी हो चुकी थी, और पास क्रासिंग का दिन लम्बा और टफ होता है, इसलिए ग्रुप को जल्दी कैंप छोड़ना था। 5 बजे चाय और टोस्ट का नाश्ता करके हम ऑब्जेक्टिव कि तरफ निकल पड़े। आज मेरा फोकस ट्रेक लीडर पर था। क्योंकि पास क्रासिंग सबसे टेक्निकल होती है, तो इसमें ट्रेक लीडर का रोल काफी इम्पोर्टेन्ट होता है। चूँकि वो ही ग्रुप के लिए रास्ता खोलता है। मेरी फिल्म के लिए इस पार्ट को डॉक्यूमेंट करना काफी ज़रूरी था। इसीलिए में ग्रुप से आगे, विवेक जोकि हमारा ट्रेक लीडर था, उसके साथ चल रहा था। विवेक मौसम को आंकते हुए पास क्रॉस करने कि डेडलाइन निर्धारित कर रहा था। बादलों को देख ऐसा लग रहा था की लंच के बाद बारिश होगी। पहाड़ों में यह आम बात है। इसलिए ज़रूरी था की 11 बजे तक सब लोग पास क्रॉस करके नीचे कैंप की ओर पहुँचने लगें। [/vc_column_text][vc_single_image image=”5993″ img_size=”full” add_caption=”yes” alignment=”center”][vc_column_text]

मोरेन (Moraine ) ख़तम करके हम आखिरी सबसे बड़ी चढाई के बेस पर रुके। बाकि लोग कुछ 25 – 30 मिनट की दूरी पर थे। विवेक ने कुछ ही दूर स्थित ग्लैशियल आइस की तरफ पॉइंट करते हुए पूछा, ‘ जानते हो यहाँ क्या हुआ था?’ ।  मैं वहां पहली बार आया था तो मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता था। बाकी लोग दूर थे, तो विवेक ने समय काटने को किस्सा सुनाना ठीक समझा। 



‘कई सालो से पारंगला पास को स्पीति-लद्दाख के लोग एक घाटी से दूसरी में जाने के लिए इस्तेमाल करते आये हैँ ।  कभी इस पास से ट्राइबल ट्रेडर्स गुज़रते तोह कभी शादी में शामिल बाराती। कुछ 20 साल पहले एक 50 – 55 वर्षीय महिला, जो किब्बर निवासी थी, उसने सन्यास लेने कि सोची। और तय किया की कारजोक में जो लामा जी की मोनेस्ट्री है वहां पर बचा जीवन साध्वी कि तरह बिताएगी। उसका पति काफी साल पहले गुज़र गया था और तीन लड़के काज़ा और शिमला में काम करते थे। माँ ने बेटों को अपनी इच्छा बताई और रिक्वेस्ट किया कि उसे करज़ोक छोड़ आएं। अपने जीवन में व्यस्त बेटों ने सोचा की अच्छा ही है की माँ का बोझ मोनेस्ट्री उठा लेगी। बूढ़ी औरत ने दान भाव से अपनी सारी पूंजी और गहने लामा जी को देने लिए बाँध लिए। लड़के सरप्राइज़्ड थे की सारा धन धर्मार्थ में व्यर्थ हो जाएगा। खैर वो पारंगला की ओर निकल पड़े। रास्ते भर माँ को रिझाते – मनाते रहे कि वह धन उनके सुपूर्ध कर दे, वैसे भी मंदिर में देने का क्या ही फायदा। लेकिन माँ ने उनकी नहीं सुनी। 



अपनी यात्रा के तीसरे दिन माँ बेटे पारंगला पर वहीं पहुंचे जहाँ अभी हम थे। उनको कुछ सूझ गया था। बुढ़िया एक पत्थर पर बैठी थोड़ी सांसें बटोर रही थी। तीनो लड़के माँ को घेर लेते हैँ। बुढ़िया के हाथ पैर पकड़ कर उठाते हैँ और बोरी कि तरह, एक बड़े क्रेवास (crevasse) में फेकने लगते हैँ।  बुढ़िया ने यह कभी एक्सपेक्ट नहीं किया था। वो गिड़गिड़ाती है। लेकिन धूर्त बेटे मन्न बना चुके हैँ, वह यह भांप जाती है। आखिर में श्राप देती है कि लड़को की सारी दौलत मिटटी बन जाएगी। लड़के एक नहीं सुनते, और बोरी की तरह उसे क्रेवास में लुढ़का देते हैँ। 



बुढ़िया क्रेवास की संकरी दीवारों के बीच कहीं जाके फंसती है। उसकी दर्द भरी चींख उठती है, लेकिन जान अभी भी बाकी होती है। वह चिल्लाती है, मदद के लिए बुलाती है। लेकिन कुछ ही मिनटों में -50 डिग्री सेल्सियस से भी कम तापमान उसकी रूह को जमा देता है और मोस्ट लाइकली वो एक्यूट  ह्य्पोथेरमिआ के कारण मर जाती है। लड़के सामान और गहने विभाजित करते हैँ, और वापिस निकल लेते हैँ। गाओं वालो को यह कहानी बता देते हैँ की माँ की मृत्यु ठण्ड और कठिन सफर के दौरान बीमार पड़ने से हो गयी। सो अंतिम क्रिया पारंगला पर ही कर आये। [/vc_column_text][vc_single_image image=”5994″ img_size=”full” add_caption=”yes” alignment=”center”][vc_column_text]

कुछ दिन सब ठीक चलता है। फिर एक के बाद एक, लड़को के जीवन में परेशानियां उमड़ पड़ती हैँ। एक की रोड एक्सीडेंट में मौत हो जाती है। बाकि दोनों किसी कारण मानसिक संतुलन खो बैठते हैँ। उनमें से एक स्पीति नदी में कूद कर आत्महत्या कर लेता है। और तीसरा पागल हो कर सड़कों पर भटकता रहता है। और सिर्फ उस दिन के, माँ के मर्डर का किस्सा बोलता रहता है। ऑन रिपीट।’



विवेक चुप हो जाता है। मैं थोड़ा सहम जाता हूँ और सोच में पड़ जाता हूँ। बाकि ग्रुप हम तक पहुँच गया था। मैं थोड़ा होश में आता हूँ। Folklore ! Folklore , ही है ये।  जो अक्सर टूरिस्ट को डराने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मैं भी क्या फ़ालतू सोच में पड़ गया। 



आखिरी चढाई से पहले सोचा कैमरा चेक कर लूँ। एक दो ब्लेंक क्लिक करी तो ‘insufficient memory ‘ का नोटिस आ गया स्क्रीन पर। मैं सरप्राइज़्ड था। उस वाले मेमोरी कार्ड में सिर्फ रात की फुटेज ही कैप्चर की थी। तो सारा स्पेस नहीं भरना चाहिए था। खैर मैंने सोचा अगर कुछ काम का कैप्चर न हुआ हो तो फुटेज डिलीट कर देता हूँ। वीडियो सेलेक्ट करके फ़ास्ट फॉरवर्ड चक्का घुमाया देखने के लिए कि किस्मत से अगर स्नो लेपर्ड कैप्चर हुआ हो तो। राउंड पर राउंड घुमाने पर भी कुछ नहीं था। मैं फुटेज के एन्ड पर ही था, कि मेरी ऊँगली अचानक धीमी हो गयी। मैं आश्चर्यचकित था। स्नो लेपर्ड, वो फ्रेम में दायीं ओर से आया। हलके हलके दबे पाओं, सारी जंगली बिल्लियों की तरह। वो जगह टटोल रहा था। इधर उधर सूँघ रहा था। फिर वह सचेत सा खड़ा हो जाता है। अचानक ही मुड़ कर जिस दिशा से आता है, उसी ओर वापिस भाग जाता है, फ्रेम से बाहर। मैं कई बार रिवाइंड करके पूरा लम्हा जीता हूँ। फिर फॉर्मेलिटी के लिए आगे की बची फुटेज भी देखता हूँ। उसमे कुछ ख़ास नहीं होता। और आगे बढ़ता हूँ। आखिरी के चार मिनट में फिर एक स्नो लेपर्ड सी परछाई कैंप की तरफ दौड़ती दिखती है। वो दाईं ओर से आती है और तेज़ी से भागती मेरे टेंट में चली जाती है। और फिर नदारद। उसके कुछ ही टाइम बाद मैं बाहर आता हूँ, और कैमरा बंद करता हूँ। 



मैं उसी पल वहां खड़ा-खड़ा जम गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था। किसी को बताऊँ भी तोह क्या। वो परछाई केवल आभास बराबर ही थी। मैं डरने से ज़्यादा शायद puzzled और shocked था । खैर सब चल पड़े तो मैं भी चुपचाप चल पड़ा। उस दिन अपने आप को शूट करने के लिए तैयार नहीं कर पाया। बस कुछ बेसिक शॉट्स लिए और चलता रहा। रास्ते में एक पानी के स्त्रोत पर रुके। सबने वाटर-बोत्तल भरी। जब मेरी बारी आयी, तो मैं झुका पानी भरने के लिए। और एकदम से पानी लाल हो गया। खून की तरह। मैं हड़बड़ा कर पीछे गिर गया। होश संभाला तो पानी तो वैसा ही था, बेरंग। या तो altitude था या मेरी मेन्टल सिचुएशन, मैं hallucinate कर रहा था शायद। वैसे ऑक्सीजन के आभाव से और altitude sickness के भी पहले लक्षण कुछ ऐसे ही होते हैँ। 



किसी तरह अगले कैंप पहुंच गया। और सीधे जाके टेंट में घुस गया। मुझे सोचने के लिए एकांत चाहिए था। घंटो सोचा और कब आँख लग गयी,पता ही नहीं चला। शायद किसी ने खाने के लिए पुकारा हो पर सोता देख, न जगाया हो। जब आँख खुली तो रात के दो बज रहे थे। ज़्यादा सोचने का पॉइंट नहीं था। अब उस जगह रहने का मेरा ख़ास मन नहीं था। काम ख़तम करके जल्दी वापिस निकलना था। सोचा सुबह के लिए कैमरा रेडी कर लूँ। मैंने किट, बैग से निकालकर स्लीपिंग मैट पर बिछाई। बैटरीज को पावर बैंक मैं चार्ज करने को लगाया। GoPro के माउंट्स चेक किये। दिनभर चलने के बाद काफी भूख भी लगी थी। सोचा किचन टेंट में जाके देखूं की कुछ बचा हो पेट भरने को। 



तभी एक आवाज़ कानों में पड़ी। पहाड़ी रातों की तेज़ सर्द हवाओं में भी वो पुकार मेरे कानों में clearly सुनाई पड रही थी, ‘मेरी मदद करो! ये मुझे मार डालेंगे।’ एक औरत काफी desperate help मांग रही थी। 



शायद इस ग्रुप में कोई मेरे साथ काफी भद्दा मज़ाक कर रहा था। शायद विवेक। उसी ने मुझे वो कहानी सुनाई थी। मैंने सोचा चाहे जो भी हो, अब इसका फैसला कर ही डालूंगा। कैमरा पर रंगे हाथ पकड़कर सबक सिखाऊंगा। मैंने gopro headmount पर लगा लिया, और वीडियो रिकॉर्डिंग ऑन करके टेंट से निकला। तेज़ बर्फीली हवाएं चल रहीं थी। हवा में एक अजीब सी गंध भी थी। जैसे मांस सड़ रहा हो। आवाज़ और वो स्मेल, दोनों दूर लगाए हुए टॉयलेट टेंट की ओर से आ रही थी।  में उसी तरफ बढ़ चला।



टॉयलेट टेंट में कोई नहीं था। वहां दुर्गन्ध और भी तेज़ हो गयी। शायद टेंट के पीछे कुछ था। मैं बाहर निकलकर टेंट के पीछे की ओर गया।



एक बहुत बड़ा गड्ढा खुदा था।  उसे देख मैं स्तब्ध रह गया। उसमे सैकड़ों रेपर, टिंड फ़ूड कैन्स, गीला कूड़ा, टॉयलेट रोल्स, आदि सड़ रहे थे। दुर्गन्ध ऐसी जैसे कई डेड बॉडीज सड़ रहीं हों। पास बहने वाली स्ट्रीम में भी कुछ कूड़ा रिस रहा था। पहाड़ों वाली maggi खाके, उसकी फोटो सभी टूरिस्ट ले जाते हैं| लेकिन प्रेत आत्माओ जैसे, उनके प्लास्टिक रेपर अनगिनत सालो तक इन्ही वादियों, नदियों नालों में भटकते रहते हैं| सैकड़ों टूरिस्ट, ट्रैवलर बनने का ढोंग भी रचा लेते हैं, लेकिन न ही आदतें बदलती हैं, और न ही तरीके| यह सोचकर मेरा दिल बैठ गया। शायद धरती ही वो बूढ़ी माँ हैँ, जिसको उसके बच्चे मार रहे हैँ। और जो शायद नित्य मदद के लिए पुकार भी रही है| [/vc_column_text][vc_single_image image=”5995″ img_size=”full” alignment=”center”][vc_column_text]

मैं हताश था। Hallucinations का पर्दा तोह फाश हुआ लेकिन, सिर में भारी दर्द उठ खड़ा हुआ था। और जी भी मिचलाने लगा। एक्यूट माउंटेन सिकनेस अब शायद HAPE या HACE में तब्दील हो रही थी। शायद पहले ही Diamox खा लेनी चाहिए थी। अब जल्दी descend करके निचले इलाके में जाना ही, एक चारा था। मैंने हिम्मत जुटा कर विवेक को उठाया और उसकी सहायता से एक पोर्टर के साथ निचले कैंप की ओर बढ़ चला।

Disclaimer: This piece is a work of fiction. All elements are works of the writer’s creative imagination. [/vc_column_text][vc_column_text]


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